📰 विशेष रिपोर्ट- कुमार गौरव । भागलपुर
रांची: आदिवासी समाज को आमतौर पर गीत, संगीत और नृत्य से जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में यह केवल सांस्कृतिक पक्ष नहीं, बल्कि उनकी जीवनशैली की आत्मा है। हर आयोजन — चाहे वह पर्व हो या कोई पारिवारिक अवसर — उनकी सांस्कृतिक पहचान से शुरू होकर उसी में सिमटता है। लेकिन यह पहचान केवल मंचीय प्रस्तुति नहीं है, बल्कि उनकी हस्तशिल्प परंपरा में भी गहराई से रची-बसी है।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित इस कला में जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जो न केवल व्यावहारिक हैं बल्कि सौंदर्यबोध से भी परिपूर्ण हैं। चाहे बरसात में उपयोग होने वाला पारंपरिक छाता हो या “घोघी” जैसे उपकरण, आदिवासी समुदाय उन्हें आज भी अपने हाथों से बनाते और इस्तेमाल करते हैं।
इन छातों की खासियत है — इनकी मजबूती, टिकाऊपन और आकर्षक डिज़ाइन। ये न केवल पर्यावरण अनुकूल हैं, बल्कि आदिवासी आत्मनिर्भरता का प्रतीक भी हैं। रांची निवासी सुधीर मिश्रा द्वारा भेजी गईं इन पारंपरिक छातों की तस्वीरें देखकर सहज ही मुंह से “वाह! कितनी खूबसूरत!” निकल पड़ता है।
यह कला महज उपयोगिता नहीं, एक जीवित विरासत है, जो बताती है कि कैसे आदिवासी समाज प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए सौंदर्य और साधन का संतुलन बनाए रखता है।
